Thursday, 12 November 2009

lancedowne 4

सब कुछ अच्छा था , पर झगडों के बिना इतना अच्छा न होता।
दो ऐसी ही नज्में ।

10

कल की तरह आज भी उठकर
मैं चल पड़ा उसका इशारा समझ कर
सोचा धुप सेक आऊं
सुबह-सुबह बोन-फिरे करलूं ।

सब कुछ तो था वही पर
कुछ तो अजीब ज़रूर था ।
उसने एक-एक करके
सबको अपनी तरफ़ कर लिया था ।

दूर की बर्फीली चट्टानों से कहा था
मैं तुम्हारे माथे पे चमकीला टीका मल दूँगा ।

वादी में फैला था घना कोहरा,
कल रात चूल्हा जलाके बुझाना भूल गया होगा कोई,
कोहरे को उसके हाल से
निजात दिलाने का वडा भी कर चुका था ।

पत्तों से कहा 'बदन गीले हैं, ठण्ड होगी,
अपनी धुप से आओ पौंछ दूँ, सुखा दूँ '

तारों को सोने के लिए तकिये दे दिए थे
वो सब सो चुके थे ।

पुराने गिरजा-घर से कहा 'मैं खिड़की-दरवाजों
से अन्दर आकर, फर्श पर नए पैटर्न बना दूंगा
मरियम बड़ी खुश होगी'।

शबनम की बूंदों को तो मोती बनाने का
झूठा वादा भी कर लिया था उसने ।

पत्थरों के माथे भी धीरे-धीरे सहला रहा था
जैसे औज़ार तैयार करता है कोई।

मुझे देख गुस्से से घूर रहा है,
दिन भर अब मुझे सताएगा
मेरी नंगे कन्धों पे बरसायेगा
जाने कितने ही तीर किरणों के ।

बहुत नाराज़ है मुझसे ये
रात, सारी रात जो मेरे साथ थी !

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9

अपने बिस्तर पे लेटे,
तन्हाई की चादर ओढे,
एक सुबह को लिखा मैंने
बासी शब् की बात ।

आंखों का कैमरा लेकर
बहार जाने से लेकिन डर लगता है
यह सोच कर की कैसे छुपुंगा
और कैसे मिलूँगा उन सब से ।

बाहर आते ही हवा घेर लेगी,
कहीं जाने न देगी, काटेगी चेहरे को ।
और वादी के पथरीले रास्ते भी अपना कहर ढहाएंगे
पहले से परेशां और थके मेरे पैरों पर ।
घना कोहरा भी मारेगा ठोकर
पता नहीं कहाँ-कहाँ से आकर ।
ये बड़े-बड़े चीड के पेड़
बार-बार मुझपर गिरने की धमकी देंगे।
और इन सब का सरदार वो लाल-पीला सूरज
मुझे सीधी-आँख धरेगा और पूछेगा -
'फिर से एक नज़्म चुरा लिया है तुने,
अब यहाँ क्या चुराने आया है ?

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