Saturday, 28 November 2009

please suggest a title

you are the turn i can not miss
you are the line i can not bend
you are the height i can not rise
you are the destiny i can not mend

you are the doubt i can not clear
you are the puzzle i can not solve
you are the question i can not answer
you are the 'love' that i can only love!!

Wednesday, 18 November 2009

the mirror within

i love, that we are so eager to meet
though there is no reason to;
i love, that we talk on and on
though we understand even the silence between;
i love, that we clarify and justify
we both but know its not needed;
i love, to be grumpy and irritated
as i know you will get me out.


i love to aruge, shout and even fight
though i hurt myself more;
i love, to act insensitive
because i want you to repeat what moved me;
i love, to think again and again
dissect and analyse you
as i am sure of the result;
i love to tease you, bug actually
as even then, i know you love me;


i love to be impatient and wait
as i know that you will come;
i love to ask you even the little things
as i know you will answer;
i love, to go round and round
as i know you are at the centre of it all;
i love, to be helpless without you
as i know that you are with me;
i dont know, if i love or i love you
or i simply love everything about you.

note:
i just realised that i have crossed 100 posts. I never realised how close was I to it. No nervous ninties for me. One moment to explain why the name maybemay. Read the very first post you will understand. If not read on - I was not sure that I would continue to be sincere in writing and posting them as well. So, in May 2007, when I started this, I hoped that I may continue writing/blogging. Hence, may be this May! I think 100 is not too bad a start. Thanks to all the guests who visited this e-aangan of mine. You are welcome again and again and hopefully I would keep placing dew-fresh and true-sincere flowers for you to observe every time.

The number 100 has a very fuilfilling, interesting connotation, which is not unknown to many. Namely that it is full, complete and perfect in itself.Anything less would not do. It may be close, very close but 100 is 100 percent. It has a different meaning also if you consider that 50 + 50 make 100. There were some doubts about being 50+49 or 49+50 (not 100 per cent) but I am chuckling at the thought that this is the 102(two more than 100)nd post.

Tuesday, 17 November 2009

drive

i think you already know it,
but i could breathe again if i write.

have trust in you enough,
to put you at the wheel.
the control, the balance,
all in your firm hands.
the shifting of gears,
the pace and flow of life as well.

have relied,
upon your sight
for maneuvering the twists and turns.
your care to avoid bumpers
and caution to brake and speed when needed.

will you also trust Me?
to know the BIG map by heart
to know all the right directions to take
to follow the right traffic and people
to be guided in this maze till the end

will you have faith on Me?
to show you the by-lanes that are useful
to take the highways that must not be missed
to take U-turns when I say to
to drive-on, even when no road is obvious
simply to take you home!

know it for sure,
without doubt, now or after
that i am not here to show you the way
but, for you I am the WAY!!

Sunday, 15 November 2009

i can't name my poems anymore

english is back again...
but there is 'un petit problem'
i cant name my poems anymore...the reason ?
well i have written it in one poem of mine as well..and yeah you might have guessed that doesnt have a name as well!! okay enough of bhumika..here is the poem..

don't ever presume
even less assume
about what i think
or what i think about

when we have given ourselves-
body, mind, intellect, thoughts
dreams, hope, souls also,
to each other in love

when there is faith, equal or more
when there is trust, equal or more
when there is certainty that
one would do as much or even more

where have these seeds of boudt
(i dont want to even say it)
found ground to sprout upon
lets not have anything to do with them
pick the sickle of love, weed out them.

Thursday, 12 November 2009

lancedowne 4

सब कुछ अच्छा था , पर झगडों के बिना इतना अच्छा न होता।
दो ऐसी ही नज्में ।

10

कल की तरह आज भी उठकर
मैं चल पड़ा उसका इशारा समझ कर
सोचा धुप सेक आऊं
सुबह-सुबह बोन-फिरे करलूं ।

सब कुछ तो था वही पर
कुछ तो अजीब ज़रूर था ।
उसने एक-एक करके
सबको अपनी तरफ़ कर लिया था ।

दूर की बर्फीली चट्टानों से कहा था
मैं तुम्हारे माथे पे चमकीला टीका मल दूँगा ।

वादी में फैला था घना कोहरा,
कल रात चूल्हा जलाके बुझाना भूल गया होगा कोई,
कोहरे को उसके हाल से
निजात दिलाने का वडा भी कर चुका था ।

पत्तों से कहा 'बदन गीले हैं, ठण्ड होगी,
अपनी धुप से आओ पौंछ दूँ, सुखा दूँ '

तारों को सोने के लिए तकिये दे दिए थे
वो सब सो चुके थे ।

पुराने गिरजा-घर से कहा 'मैं खिड़की-दरवाजों
से अन्दर आकर, फर्श पर नए पैटर्न बना दूंगा
मरियम बड़ी खुश होगी'।

शबनम की बूंदों को तो मोती बनाने का
झूठा वादा भी कर लिया था उसने ।

पत्थरों के माथे भी धीरे-धीरे सहला रहा था
जैसे औज़ार तैयार करता है कोई।

मुझे देख गुस्से से घूर रहा है,
दिन भर अब मुझे सताएगा
मेरी नंगे कन्धों पे बरसायेगा
जाने कितने ही तीर किरणों के ।

बहुत नाराज़ है मुझसे ये
रात, सारी रात जो मेरे साथ थी !

____________
9

अपने बिस्तर पे लेटे,
तन्हाई की चादर ओढे,
एक सुबह को लिखा मैंने
बासी शब् की बात ।

आंखों का कैमरा लेकर
बहार जाने से लेकिन डर लगता है
यह सोच कर की कैसे छुपुंगा
और कैसे मिलूँगा उन सब से ।

बाहर आते ही हवा घेर लेगी,
कहीं जाने न देगी, काटेगी चेहरे को ।
और वादी के पथरीले रास्ते भी अपना कहर ढहाएंगे
पहले से परेशां और थके मेरे पैरों पर ।
घना कोहरा भी मारेगा ठोकर
पता नहीं कहाँ-कहाँ से आकर ।
ये बड़े-बड़े चीड के पेड़
बार-बार मुझपर गिरने की धमकी देंगे।
और इन सब का सरदार वो लाल-पीला सूरज
मुझे सीधी-आँख धरेगा और पूछेगा -
'फिर से एक नज़्म चुरा लिया है तुने,
अब यहाँ क्या चुराने आया है ?

Monday, 9 November 2009

emotions-reason

well, i have thought about it so many times,
emotions (your heart, gut feel, sixth or seventh sense etc. etc. you get the point right?)
and
reason (judgement, rational, maturity, understanding, analysis etc. etc. again you get the point rt?)
I have experienced the simultaneous existance of both of them,
how one drags the other's hand and how one hold backs the other,
how both are present in the same person but at different locations,
how both think (and with what conviction) that one is right and the other is wrong,
how sometimes both think both are absolutely right only to be proven wrong,
how both thought at times, everything has gone wrong, lost hope, only to regain it miracle-like,
how sometimes emotion goes ahead like an unstoppable tornado or flood and decides something for me, reasons follows up with its slow judicious, careful, spreading fog-like approach and decides on its own and tells it plainly,
how sometimes reason decides something for once and all and then emotions slowly wets the ground with tears, dreams and wishes; impregnates it with seeds of doubt and asks reason to judge again; think again; please.
how both in face of tremendous opposition from the whole of this world give enough courage to man and say - "don't worry, we two are there with you, that should be enough, go ahead"
how both come together, how both nurture each other, how they give absolute conviction to a man and raise him to a level so high..as GOD

for GOD is absolute reason and absolute emotion at the same time...

Friday, 6 November 2009

lancedowne 3


सुना है दिवाली को पहनते है लोग नए कपड़े
पुराना ही कोई रिवाज़ होगा नए कपड़े पहनने का ।

अब यहाँ इस वीरान वादी में
खामोशियों की बाली के सिवा क्या है ?

तुम्हारे हाथों का बुना हुआ स्वेटर है
पुराना था, अब तो बहुत पुराना हो गया है ।

नज्में नई ज़रूर हैं, पर वो मुझसे दूर ही रहती हैं,
बेहया! हाथों से रुखसत होते ही लिपट जाती हैं कागज़ के साथ ।
ख़ुद के जिस्म से उसका जिस्म ओढ़ देती हैं,
जैसे तुम भी कभी मुझे ओढ़ देतीं थी ।

आसमान का शाल था कला-सा, शीशे जड़े थे, आइना भी था
उसे कोई ले गया कल रात, ये नीला-वाला मुझे नहीं भाता ।

धुंध बहुत है यहाँ, पहाड़ भी अपना लिबास बांटने को तैयार हैं
पर यह बड़ा है, काट के मेरे लायक बना दे, दर्जी भी तो नहीं है ।

पटाखों की गूँज अब हलकी हो गयी है, दिए मद्धम
ये दिवाली भी ऐसे ही गुज़र जायेगी, वक्त के दाने बचे हैं चंद ।

उससे जाकर कहता हूँ, वो तो यहीं है ,
वो ही कुछ आ़राम करे,
मेरा ये जिस्म जलाके रौशनी कर दे,
और मेरी रूह को किसी नए जिस्म का कपड़ा पहनादे ।।

7
__________

पुराने गेस्ट हाउस के खिड़की से देखा
भूरे-हरे, नीले-पीले, काले-सफ़ेद, पास और दूर से पहाड़ ।
मानो इतवार के मेले में एक कतार में, चुप-चाप सी खड़ी
गाँव की बहुत सारी औरतें
जिनके आँख-नाक, कान-दांत नहीं दिख रहे
बस उनकी जुल्फों पे उडेल हुए
वक्त के अलग-अलग रंग के स्याही दीखते हैं ।

वो जो सबसे पीछे खड़े हैं सफ़ेद से पहाड़,
वो जो कई सालों से चुप हैं,
वो जिनके करीब से अब बस खामोशी ही गुज़रती है
खामोशी से ।
पता नहीं चलता के पहाड़ हैं या सफ़ेद बादल
कौन कहे
बादलों ने अपना बोझ रख दिया
पहाडों के कन्धों पे पल-भर को
या पहाडों ने टिका दिए हैं बादलों के गोदी में
अपने थके-भरी सर को ।

Monday, 2 November 2009

रिश्ता

क्यों जाऊँ मैं यहाँ,
क्यों जाऊँ मैं वहां ?
काबा-कलिषा, कशी-पुरी
मक्का-अमृतसर, सारा जहाँ ॥ १॥

क्यों चढूं-उतरूँ पहाड़ के पहाड़,
क्यों पार करूँ नाले, टटोलूं गुफा,
क्यों कोई मुझसे कहे
कहाँ तू है और कहाँ तू नहीं ॥ २॥

क्यों करूँ मैं ऐसा या वैसा ?
चौकडी-आसन लागों, आँखे बंद
मत्था टेकून, घुटने जोडूं
सर फोडूं, हाथ जोडूं ॥ ३॥

क्यों करूँ मैं अलग-अलग भेष ?
सर मुंडवाऊं, दाढ़ी-मूंछ बढ़ाऊँ
टोपी-पगड़ी या हिजाब पहनूं
पहनूं हरा-गेरुआ- सफ़ेद बदन पे ॥ ४॥

क्यों करूँ 'वज़ु', गंगा नाहाऊं ?
तेरा नाम लूँ एक-तीन-पाच बार
हर साँस के साथ सोते-जागते क्यों नहीं?
मेरी आह, मेरी नज़्म मेरी दुआ नहीं ? ॥ ५॥

क्यों रोकूँ साँस, छोडूं फिर धीरे-से
क्यों जिस्म पे करूँ इख्तेयार
क्यों दूँ-लूँ मैं बड़े-छोटे दान-धरम
सब कुछ तेरा है, मेरा तो नहीं ॥ ६॥

क्यों किसी एक जुबां से बात करूँ तुझसे,
क्यूँ अदा करूँ नामाज़, मन्त्र-बनी पढूं ?
क्यूँ तारीफ़ करूँ तेरी, भीख मांगूं, गिड़गिड़आऊं
ख़ुद खामोश है, मेरी नहीं समझता ? ॥ ७॥

क्यूँ सुनु मैं इसको या उसको,
मुल्ला-पंडित, गुरु-सिख
तेरे चौकीदार है ? तू तो नहीं पहचानता इन्हे
रहता भी नहीं इनके घर में ॥ ८॥

क्यूँ जाऊँ मैं जन्नत
ये कहते हैं बड़ा हसीं है
भी देखा है इन्होने, ये जायें
मुझे तो बस अपने घर वापिस जाना है ॥ 9॥

क्या देखा है किसीने तेरा चेहरा ?
क्या तू कभी बोला है किसी से ?
आ ! मेरे सर पे हाथ फेर, बोल मुझसे !
अपने ही बच्चे से इतना नाराज़ होता है कोई ? ॥ १०॥

lancedowne 2


इस स्नो-पॉइंट पे आकर देखा
बड़े से एक पत्थर पे लिखे दो नाम
हाँ नाम जुड़े थे, या जोड़े थे किसीने ।
नाम तो जोड़ दिया,
पर जिस्मों का कोई पता नहीं,
ना ही रूहों का, जाने कितनी पुरानी होगी ।
पता भी नहीं वो दोनों जुड़े होंगे या तनहा ।

मैंने सोचा मैं भी जोड़दूँ तुम्हारा और मेरा नाम
कुछ देर यहीं रह जायेंगे हम
वक्त से नज़रें बचा कर, पास-पास ।
मैंने वहीँ पड़े एक छोटे से पत्थर से
उस बड़े पत्थर पे अपना नाम दोहरा-दोहरा के लिखा ,
एक चिन्ह सा बनाया,
फिर रुक गया ।
तुमने तो अपना नाम ही नहीं बताया था,
क्या लिखता,
खुदा का क्या कोई नाम होता है ?

________

जी करता है कुछ देर और रात की खुली जुल्फें सवारूँ
कुछ खाब और आ जायेंगे हाथों में मेरे।

कुछ देर और नर्म धुप को गुद-गुदी करने दूँ मुझे
भूली हुए कहकहे फिर से गुन्जेंगे मेरे आँगन में ।

कुछ दूर और यादों की रस्सी पकड़कर पीछे उतरूँ
छाले कुछ और पड़ जायेंगे हाथों में ।

कुछ कोपलों से शबनम निचोडून धीरे से
कुछ आँसू आंखों से ऐसे ही बह जायेंगे ।

कुछ देर और चलूँ इन लंबे रास्तों के साथ
कबसे चले हैं जो मेरे कदम शायद कहीं थम जायेंगे।

कुछ देर और खड़ा रहूँ यहाँ इन पहाडों के साथ
जो साँसें सदियों से जिस्म में कैद थे वो फिर से चल पड़ेंगे ।