भीगे अँधेरों का शाल
सुखाने के लिए घर के तारों पर टांगा,
फूँक-फूँक कर रौशनी को
उम्मीदों के अंगारों पर जिंदा राखा ।
हवा और गर्द, जो दूध और पानी की तरह
मिल चुके थे- जुदा किया,
तन्हाइयों के भारी बोझ
झूठ के बिस्तर तले छिपाए ।
बिखरे पड़े जिस्म को
बिखरे, बेतरतीब लिबास पहनाये,
यादों के जालों को
आज के ख्यालों के पैराहन से पोंछा ।
खुदा को उसकी जगह पर
फिर उठा कर बिठाया,
रोज़ बिठाता हूँ
रोज़ जाने कैसे जीर जाता है ?
जज़्बात, जो किताबों में कैद
बुकमार्क्स की तरह बंद पड़े थे
उन्हें अपने हाल से निजात दिलाया
साँसे उधार दीं
तन्नूर सुलगाया, गर्म किया
हसरतों को गूंदा ,
गुफ्तगू के रोटी पकाए,
शाम के थाल में अपना दिल फिर परोसा
तू न आये
तेरा ख्याल तो आये ।
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