Wednesday 21 July 2010

maa

ये बिछोना पत्थरों सा चुभता है माँ
बस तेरी ही गोद में सोना चाहता हूँ ।
लिहाफ ओढ़ता हूँ तो लगता है
इसके अन्दर घुट के मर जाऊंगा,
तेरा आँचल मेरे चेहरे पर ढक दे माँ ।
ज़माने खुरचते है मेरे हात पैर,
ग़म नोचता है यादों के नाखूनों से
मेरा दिल-ओ-दिमाग,
मेरे सीने पर अपना तू हाथ तो फेर माँ ।

सूने घर में अपनी ही आवाज़
सुनकर चौंक जाता हूँ ।
और घबराहट में जब कुछ नहीं सूझता
तो अपने में सिमट कर सो जाता हूँ
जैसे कभी तेरे गर्भ में था
मेह्फूस और मासूम ;
तेरी क़दमों के आहट से लेकिन
मुझे आज जगने दे माँ ।

जिसके जी में जो आता है
वो वही नाम लेकर बुलाता है मुझे,
तू बस एक बार फिर
'बेटा' कहकर तो पुकार माँ ,
तू बस एक बार फिर
'बेटा' कहकर तो पुकार माँ ।

बस दस मिनट की देर कर दी माँ ने आने में , मैं गेस्ट-हाउस में उनका इंतज़ार कर रहा था । यह नज़्म उसी देर से मुकम्मिल हुई है । माँ देर भी करती है तो...

1 comment:

  1. Well written dear.I know words cannot describe all the emotions involved with "Maa" but you are almost there.Believe me few lines are really good.

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