Saturday 10 July 2010

dedicated to friends who are not discussed here

ये कैसे यार बनाये मैंने, यारी से जो बचते रहे,

मैं तड़पता रहा उनको, वो और तड़पाते रहे ।

अपना जशन-ए-कामयाबी, अपनी दिवाली, अपना ईद

न कोई ग़मगुसार हो, अपना ग़म ख़ुद सहते रहे ।

यारी में न होती है खुदी, न गिले, न शर्म-ओ-हया

जब तलग न बुलाया हमें 'मेहमान' घर उनके हम जाते रहे ।

आने का वादा कर भूल गए वो सालों से

राह में उनकी मगर हम दिए जलाते रहे ।

ज़ालिम वो नहीं, मेरे हाल से बेखबर भी नहीं

खुद कभी न आये वो, पैगाम ज़रूर भेजते रहे ।

जब था बस उनका सहारा, उन्हें अपना काम याद रहा

सिर्फ अमीरों को वो रस्म-ए-वफ़ा याद कराते रहे ।

मैं बयां करूँ, वो सुने ये किस्मत नहीं 'पार्थ'

अपने गिले-शिकवे बेजुबान सफहों को सुनाते रहे ।

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