ये कैसे यार बनाये मैंने, यारी से जो बचते रहे,
मैं तड़पता रहा उनको, वो और तड़पाते रहे ।
अपना जशन-ए-कामयाबी, अपनी दिवाली, अपना ईद
न कोई ग़मगुसार हो, अपना ग़म ख़ुद सहते रहे ।
यारी में न होती है खुदी, न गिले, न शर्म-ओ-हया
जब तलग न बुलाया हमें 'मेहमान' घर उनके हम जाते रहे ।
आने का वादा कर भूल गए वो सालों से
राह में उनकी मगर हम दिए जलाते रहे ।
ज़ालिम वो नहीं, मेरे हाल से बेखबर भी नहीं
खुद कभी न आये वो, पैगाम ज़रूर भेजते रहे ।
जब था बस उनका सहारा, उन्हें अपना काम याद रहा
सिर्फ अमीरों को वो रस्म-ए-वफ़ा याद कराते रहे ।
मैं बयां करूँ, वो सुने ये किस्मत नहीं 'पार्थ'
अपने गिले-शिकवे बेजुबान सफहों को सुनाते रहे ।
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