Wednesday 30 December 2009

lancedowne 6

मेरी उँगलियों से होकर
शर्माती हुई जो गुज़रती है
रेशम सी ये पानी की डोर ,

ये पानी ही है या बर्फ का वो टुकड़ा
जिसे एक जेवर की तरह
पहन रखा था बूढ़े पहाड़ ने बरसों ।

और आसमान को चिढ़ता था -
देख मेरे पास भी हैं, और ये
तारों की तरह दिन में धोका भी नहीं देते ।

या ये पानी वो भाप है जिसे दूर साहिल पे
समुन्दर से मिलते - मिलते
सूरज हवा का जादुई जाल बिछा कर चुरा लेता है ।

मुझे तो लगता है , एक ही है यह
बूढ़े पहाड़ से लेकर, समुन्दर की गोदी तक
हर जगह, एक साथ, बस यही यह है ।

न कहीं से चली,
न कहीं पर जाना है इसे,
यहाँ - वहां , अब - तब का
वक़्त का माया जाल टूट गया
देखो वक़्त शाम के सायों की तरह
मुंह छिपा कर कैसे भाग रहा है ।

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