अच्छा था मुसाफिर था,
शाख से टूटे पत्ते,
हाथ से छूते लम्हे,
धुप से सूखे बादल,
और दिलजली सी लू
इनका कोई घर नहीं होता ।
रात के किए गए वादे
भोर तक बिछौने में कहीं खो जाते,
उतआर के रखे मोज़े की तरह
बेफिक्र और बेतरतीब ।
जब चादर ही एक रात की हो
तो न मैला होने का डर
न फ़िर से इस्तेमाल करने की फ़िक्र ,
पलकों के बंद करने और
फिर से खोलने के बीच का ही तो वक्त है
जैसे-तैसे गुज़र जाएगा ।
अच्छा था मुसाफिर था ।
अब अजनबी शहर में बदनाम होने का डर कैसा ?
परछाईयां जनि-पहचानी सी पर
चेहरे अलग-अलग से
न बिखरे बालों का फ़िक्र है
न फटे कपड़ों का, न चेचक के दागों का ।
न कोई दुलारने वाला है,
न ही पागल कह कर पत्थर मारने वाले ।
दिन-राअत के धुंधलके में शीशे के डब्बों से
हर किसी को आप और आप को हर कोई
कुछ - कुछ एक-से लगते हैं ।
अच्छा था मुसाफिर था ।
छलनी-सी काया से होकर गुज़र जाती है चीज़ें
जो मांगे बिना मिल गया, वो पूछे बिना चला गया ।
हाँ, पल भर को लगाव हो जाता है कभी-कभी ।
न कुछ चोरी होने का डर है,
न आग-पानी में जल-गल जाने का ।
ताले-चाबी रखने से क्या?
तकिये के नीचे छुपाना कैसा ?
जो कुछ था , है और होगा - सब उसका
मैं तो ऐसे ही चला था,
ऐसा ही था ।
अच्छा था मुसाफिर था,
वैसे देखो तो अब भी मुसाफिर ही हूँ ।
I read this poem on the 'Human Face' Programme of AIR-Rainbow, FM channel in the month of August 2009 as a part of a 15 minute interview. The interview is available with me and also in acrhives of AIR website.
aachha tha mussafir tha
ReplyDeleteaachha he mussafir he
bhale thahar ja kanhi, par wahan ruk na jana
bahti pani ko barf bante der nahi lagti
na lava ko chataan bante
par der to lagti he
pahad ko phir nadi bante.
bhale paresan ho kisi chis se, par tut na jana
saakh se tute paton ka koi thikana nahi hota
na hawa me tairten wo chataano ke chote- chote kan....
two contradictory things ...but justifies two different situations..