Saturday 9 January 2010

untitles again - suggestions invited

लाल-पीले, भूरे-नीले, सफ़ेद-काले
कितने और घूंघट खोलूं मैं ?
क्यों ढूँढूं मैं वो नूर-सा चेहरा
हर-बार, बेकरार और बेबस
और क्यों हर-बार हूँ मायूस ?

जंगल के जंगल फांद लिए,
पांव-छिले, सांस-फूले, बदन टूटे,
रात-दिन, दौड़े-भागे,
कौन किस कस्तूरी कि तलाश में
और कहाँ-कहाँ ?

कितने देश, गाँव-शहर, बस्ती रहे कोई,
कितनों को करे अपने-पराये,
कितने जिस्मों ला लिबास पहने,
क्यों किसी का इंतज़ार करे कोई ।
घूंघट के पट तू क्या कभी खोलेगा ?
कस्तूरी को अपने सुगंध का पता मिलेगा ?
भटके राही को अपने घर का पता
और मुझे हर किसी में तू ही तू मिलेगा ?


1 comment:

  1. har baat,har labz
    har andaaz,kar aks,
    har ghazal,wahin
    useke istak baal mein..

    sadke jaawan,waare jawan,
    tumhaare is khayaal mein!

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