Thursday 16 September 2010

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poem written in two parts.
the first part was written much before the incident that triggered off the second one.
sometimes poetry follows life...sometime life follows poetry!!
-part 1-
तुम्हारी रात सी खुली जुल्फों से कह दो
यूँ हवा में लहराते हुए , झूमते हुए
मुझे न सताएं , न डराएं .

कहते हैं "हम तो लम्बे होते -होते
इस शहर के रास्तों से भी लम्बे हो जायेंगे
तुझसे , तेरे घर से , मोहल्ले से आगे निकल जायेंगे "

"तू कहता है बड़ा सब्र है तुझ में !
हम भी ले कर देखेंगे तेरा सब्र-ए-इम्तेहान
अपना रंग हम भी बदल कर देखेंगे "

लगता है , मैं अगर कायम रहा
तो तेरी ये रेशमी जुल्फें ही मेरे गले
के सख्त फंदे बन मुझे निजात दिलाएंगे .

-part 2 -

चौंक गयी थी तुम उसे देखकर
मैं भी चौंका था .

कभी सामने आता तो कभी छुप जाता था वो .
जुदा कर दिया उसे अपने घर से तुमने , मैं तो वैसे भी खुश था .

अब काले बादलों के बीच
एक चांदी की तार सी बिजली कितनी सुन्दर लगती है
क्या बुरा था अगर तुम्हारी एक ज़ुल्फ़ ने
अपना रंग बदल लिया था !
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