Sunday, 19 September 2010

again untitled

ये जो सीधा साफ़-सा रास्ता,
काले जंगल के बीच से उसकी
गहराई को चीरता हुआ निकलता है,
कितना वीरान है देखो ।

मायूस, अब इंतज़ार भी नहीं
किसी क़दमों के चोट की ,
बिन बुलाये आँधियों ने मिटा दिए
सारे चिन्ह बीते हुए कल के ।

कभी इस पर भी उम्मीदों के तिनके उग जाते थे
और अलसाई किरणों को छूने को
अपने नन्हे हाथ बढ़ाते थे ;
आज आंसुओं के सफ़ेद मोती बिखरें हैं बस ।

एक सैलाब ही भर सकता है अब
इस वीरान से रस्ते का सूनापन ।
किसी के वजूद का निचोड़ा हुआ
सुन्दर, पाक, लाल अब्र का सैलाब ।

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