और लम्बे दिन काटे हैं कि
अब तो इस तन्हाई के बिना तन्हा लगता है .
ज़ालिम की मेहर तो देखो, देती है ग़म
मगर गमगुसार कोई नहीं .
होटों पर देती है हंसी,
पर बाँट सको, कोई ऐसा हम दम नहीं .
यादों की भीड़ अब कबाड़ी के सामन की तरह
इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं .
कभी-कभी उम्मीदें भी टूटे दीवारों
से धुप की तरह झांकते हुए अन्दर आते हैं .
कभी-कभी तुम भी उम्मीदों की तरह
चुपके से इस घर में आओ तो ,
इसी की रजा चलती हैं अब मेरे घर पे,
अपने सौत से तुम्हे जलन नहीं होती ?
'bewafa tanhai'
ReplyDeletetanha raat aur uski tanhai