Thursday 16 September 2010

tanhai? suggest a better title please

तन्हाई के साथ इतनी गहरी रातें
और लम्बे दिन काटे हैं कि
अब तो इस तन्हाई के बिना तन्हा लगता है .

ज़ालिम की मेहर तो देखो, देती है ग़म
मगर गमगुसार कोई नहीं .
होटों पर देती है हंसी,
पर बाँट सको, कोई ऐसा हम दम नहीं .

यादों की भीड़ अब कबाड़ी के सामन की तरह
इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं .
कभी-कभी उम्मीदें भी टूटे दीवारों
से धुप की तरह झांकते हुए अन्दर आते हैं .

कभी-कभी तुम भी उम्मीदों की तरह
चुपके से इस घर में आओ तो ,
इसी की रजा चलती हैं अब मेरे घर पे,
अपने सौत से तुम्हे जलन नहीं होती ?

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