Saturday, 31 October 2009

एक बेनाम नज़्म

रुक-रुक के चेक करता हूँ फ़ोन (मोबाइल) का आँगन,
कहीं तुने कोई मेसेज का तोहफा तो नहीं रखा मेरे लिए।

हर बार आइने पे दौड़ के जाता हूँ और लौट आता हूँ,
पता नहीं कैसे हर चेहरे में तू ही दीखता है आज-कल ।

तेरे ख्यालों की रजाई ओढ़ के सोता हूँ,
पल भर को भी सरकती है तो बड़ी ठण्ड लगती है सच ।

तेरी खुसबू है तो साँस लेता हूँ, सहमी सी सांसें चल पड़ी फिरसे
वरना दम घुटता है तंग-ऐ-दुनिया में ।

तेरी दुआ, तेरी नज़र मुझपर है मेरे दोस्त,
इसी ख्याल से अपना ख्याल भी रख लेता हूँ ।

तू 'है' तो 'हूँ' मैं, मेरे जीने की वज़ह असल और एक यही है,
मैं जानता हूँ
तू मुझसे और मैं तुझसे मुकम्मिल हूँ ,
तू मेरी मोहब्बत है, मैं तेरी आदत हूँ ।

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