Friday 23 October 2009

lancedowne 1

there will be a travelogue on this later, but first the poetry. 17 in two days. that should tell you something about the place - inspirational in one word. thanks to many people saurabh, gulzaarsaab, rashmi mam, 'ninu', the cook at Tip-n-Top, rooney (for rum) and his daughter becky (for one of the most beautiful smiles) and others.
i carried 'Pukhraaj' a collection of poetry by Gulazar with me, so there are definite influences of the words and thoughts.

all the 17 shall be uploaded one by one, none of them have names so will just number them। apologies to the poems.


ये हवा गुज़री है पत्तों से चिपक कर
या तुने भूले हुए जुबान में कुछ कहा है आकर ।

ये रात है जनवरी के महीने की
या तुने ओढ़ दी है काली शाल पश्मीने की ।

ये तारे खेल रहे है लुक्का-छुप्पी चाँद से
या दिए जलाये हैं भटके राही के लिए तुने शब से ।

ये पेड़ खड़े हैं सीधे और शांत इंतज़ार में
या इस ज़मीन ने मशालें जलाई है इबादत में ।

ये झींगुर दिन के झगडे निपटाते हैं शाम को
या इन्हे भी आयतें सिखादी है अपने नाम को ।

ये तारों के के मोती जड़े हैं फलक पे
या तुने माहीन से छेद किए हैं मायूस से काले परदे पर
और चुपके के कहता है, आ इस चादर को हटा,
रौशनी का, मेरा दीदार तो कर ।

ये सोचता हूँ मैं इन वादियों में कभी-कभी
के या तो मैं तनहा हूँ,
या तू मेरे साथ है भी और नहीं भी ।

__________________


वो जिसको देख कर
मुझे ये लगता था,
कि मानो आइना ही सामने ले आया हो किसीने ,
कि जुड़वों की शक्ल हमेशा एक जैसी नहीं होती,
और एक ही घर के लोग एक ही छत के नीचे बड़े नहीं होते।

मुझे आज ऐसा लगा कि
सरे भीड़ में उसीने मेरे चेहरे के पार देखा ।
मेरी सांसे, मेरा वज़ूद,
मेरा जिस्म, मेरी रूह सब को नकार दिया ।
पता नहीं उसने मुझे देखा भी या नहीं,
पता नहीं मैं सच-मुच हूँ भी या नहीं ।

ये 'पुन्तु' के लिए लिखा है। अब उसने इतनी बेरुखी कर ली है कि उसके इस नज़्म को पढने का कोई डर नहीं। किसी को पता भी नहीं चलेगा किसके बारे में लिखा है। ब्लॉग पर लिखने से पहले एक बार उससे पूछना चाहता था, उसे पढ़के सुनना चाहता था। पर कह चुका हूँ - बेरुखी काफी कर ली है उसने, उसे पता भी न चलेगा, फर्क भी न पड़ेगा।
______________
2
जाडों की सुबह नर्म धुप
जब गुदगुदी करती थी पैरों में उसके,
तो यूँ ही आँखें बंद किए हुए
आधी-सी मुस्कान बना लेती चेहरे पे ।

तरह-तरह से, जगह बदल-बदल के
घंटो निहारता था उसे,
सूरज पूरब से पश्चिम तक दिन भर
नीली वादी को देखता है जैसे ।

अपने ही हाथों से मैंने आज खोदी है
अपने छाती की गीली ज़मीन को,
और एक औंधे कोने में दफनाया है
'नीनू' और उसकी आधी-सी मुस्कान को ।

____________

1.
नींद में चलने की आदत भी है,
और कल रात देर तक
रात का सीना टटोलता रहा वो शायर ।

पर उठकर जाने क्या टटोल रहा है
बिस्तर के इर्द-गिर्द
तकिये उठाये, रजाई घसीटा,
शाल उठाके फैंक दिया कुर्सी पर ।

कहीं वो उस खाब को तो नहीं ढूंढ रहा
जो आयी थी उसके पास
दबे पाँव, चुपके-से, सहमी-सी ।

इतना भी नहीं जानता ये शायर,
खाबों के जिस्म नहीं होते,
आँख खोलने पर वो मर जातीं हैं
और कोई नाम-ओ-निशान भी रहता नहीं

No comments:

Post a Comment