जैसे गंगा , जमुना मिलती हैं तो वो सबको नज़र आता है पर उनके अन्दर सरस्वती जो बहती है वो उसे त्रिवेणीबना देती है और पावन कर देती है - गुलज़ार साहब का अपना डेफिनेशन है यह ।
एक और बात उन्ही कि किताब पुखराज में एक नज़्म (मुझे यह शब्द बहुत पसंद है) है जिसमे उन्होंने लिखा है किकैसे एक थका हारा शायर जब बोझ ढोते-ढोते परेशान हो जाता है तो एक नन्ही सी नज़्म उसके पास आकर उससेकहती है - मेरे शायर, ला अपना यह बोझ मुझे देदे , मैं तेरा बोझ हल्का कर दूँ ।
अब त्रिवेणी शुरू होती है, आगे बनती गयी तो इसी जगह पे मिलेंगी आपको ।
not all of them may fully fit the description - did not want to loose the ideas, emotions, so just penning them down.
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रात भर चाँद के आइने में अपना चेहरा निहारती रही,
एक एक कर सारे तारों की बिंदी try भी कर ली ;
देखना, तुम्हारी पीठ से चिपक कर मेरी नींद तो चली नहीं गयी |
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गुफ्तगू पर पाबन्दी उनकी, ख़ामोशी पर भी,शिकायत उनको नजदीकियों से, दूरियों से भी |
और ये कहते भी हैं वो के तुम बहुत confused हो!
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औज़ार तैयार करता हो जैसे कोई, लड़ने से पहले,
धुल हटाई, नेहलाये-धोये, चमकाए, रंग लगाये;
आज मिलना था, कल देर रात वो 'nails paint' करते रहे
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जब मिलती हो तो किसी बच्चे सी तेज़ी से दौड़ के भाग जाता है ,
तन्हाई में रेंगते-रेंगते धीरे से किसी बुज़ुर्ग की तरह गुज़रता है ;
यह वक्त है या इंसान, जो चाल अपनी बदलता ही रहता है ।
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जो पुछा सबब रोने का उनहोंने हमसे, तो कहा कि,
कुछ खाबों की धूल खटकी और कुछ काई यादों की ;
कभी कभी नज़र भी आ जाता है आंखों में पानी भी ।
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