Wednesday 14 October 2009

Triveni

इस फॉर्म का इज़ात गुलज़ार साहब ने किया था । इस में दो ही पंक्तियों में शेर मुकम्मिल होता है , वो अपने आप हीसम्पूर्ण होता है , पर तीसरी लाइन के आ जाने से या तो उनके मायने बदल जाते हैं या उनके अर्थ में इजाफा होता है।
जैसे गंगा , जमुना मिलती हैं तो वो सबको नज़र आता है पर उनके अन्दर सरस्वती जो बहती है वो उसे त्रिवेणीबना देती है और पावन कर देती है - गुलज़ार साहब का अपना डेफिनेशन है यह ।
एक और बात उन्ही कि किताब पुखराज में एक नज़्म (मुझे यह शब्द बहुत पसंद है) है जिसमे उन्होंने लिखा है किकैसे एक थका हारा शायर जब बोझ ढोते-ढोते परेशान हो जाता है तो एक नन्ही सी नज़्म उसके पास आकर उससेकहती है - मेरे शायर, ला अपना यह बोझ मुझे देदे , मैं तेरा बोझ हल्का कर दूँ । 


अब त्रिवेणी शुरू होती है, आगे बनती गयी तो इसी जगह पे मिलेंगी आपको ।  

not all of them may fully fit the description - did not want to loose the ideas, emotions, so just penning them down. 


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रात भर चाँद के आइने में अपना चेहरा निहारती रही, 
एक एक कर सारे तारों की बिंदी try भी कर ली ;
देखना, तुम्हारी पीठ से चिपक कर मेरी नींद तो चली नहीं गयी |
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गुफ्तगू  पर पाबन्दी उनकी, ख़ामोशी पर भी, 
शिकायत उनको नजदीकियों से, दूरियों से भी | 
और ये कहते भी हैं वो के तुम बहुत confused हो!
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औज़ार तैयार करता हो जैसे कोई, लड़ने से पहले,
धुल हटाई, नेहलाये-धोये, चमकाए, रंग लगाये;
आज मिलना था, कल देर रात वो 'nails paint' करते रहे 

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जिस मोड़ को छोड़ ए थे हम मीलों से, वो आज फिर मिला है;
जो बिछादगए थे सालों से, उनसे अब मिलने का सिलसिला है;
वा'इसून में आज भी बहस छिड़ी है के दुनिया गोल है ।
२७/०८/२०११
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जब मिलती हो तो किसी बच्चे सी तेज़ी से दौड़ के भाग जाता है ,
तन्हाई में रेंगते-रेंगते धीरे से किसी बुज़ुर्ग की तरह गुज़रता है ;
यह वक्त है या इंसान, जो चाल अपनी बदलता ही रहता है ।

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जो पुछा सबब रोने का उनहोंने हमसे, तो कहा कि,
कुछ खाबों की धूल खटकी और कुछ काई यादों की ;
कभी कभी नज़र भी आ जाता है आंखों में पानी भी ।

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