रुक-रुक के चेक करता हूँ फ़ोन (मोबाइल) का आँगन,
कहीं तुने कोई मेसेज का तोहफा तो नहीं रखा मेरे लिए।
हर बार आइने पे दौड़ के जाता हूँ और लौट आता हूँ,
पता नहीं कैसे हर चेहरे में तू ही दीखता है आज-कल ।
तेरे ख्यालों की रजाई ओढ़ के सोता हूँ,
पल भर को भी सरकती है तो बड़ी ठण्ड लगती है सच ।
तेरी खुसबू है तो साँस लेता हूँ, सहमी सी सांसें चल पड़ी फिरसे
वरना दम घुटता है तंग-ऐ-दुनिया में ।
तेरी दुआ, तेरी नज़र मुझपर है मेरे दोस्त,
इसी ख्याल से अपना ख्याल भी रख लेता हूँ ।
तू 'है' तो 'हूँ' मैं, मेरे जीने की वज़ह असल और एक यही है,
मैं जानता हूँ ।
तू मुझसे और मैं तुझसे मुकम्मिल हूँ ,
तू मेरी मोहब्बत है, मैं तेरी आदत हूँ ।
Saturday, 31 October 2009
Friday, 23 October 2009
lancedowne 1
there will be a travelogue on this later, but first the poetry. 17 in two days. that should tell you something about the place - inspirational in one word. thanks to many people saurabh, gulzaarsaab, rashmi mam, 'ninu', the cook at Tip-n-Top, rooney (for rum) and his daughter becky (for one of the most beautiful smiles) and others.
i carried 'Pukhraaj' a collection of poetry by Gulazar with me, so there are definite influences of the words and thoughts.
all the 17 shall be uploaded one by one, none of them have names so will just number them। apologies to the poems.
४
ये हवा गुज़री है पत्तों से चिपक कर
या तुने भूले हुए जुबान में कुछ कहा है आकर ।
ये रात है जनवरी के महीने की
या तुने ओढ़ दी है काली शाल पश्मीने की ।
ये तारे खेल रहे है लुक्का-छुप्पी चाँद से
या दिए जलाये हैं भटके राही के लिए तुने शब से ।
ये पेड़ खड़े हैं सीधे और शांत इंतज़ार में
या इस ज़मीन ने मशालें जलाई है इबादत में ।
ये झींगुर दिन के झगडे निपटाते हैं शाम को
या इन्हे भी आयतें सिखादी है अपने नाम को ।
ये तारों के के मोती जड़े हैं फलक पे
या तुने माहीन से छेद किए हैं मायूस से काले परदे पर
और चुपके के कहता है, आ इस चादर को हटा,
रौशनी का, मेरा दीदार तो कर ।
ये सोचता हूँ मैं इन वादियों में कभी-कभी
के या तो मैं तनहा हूँ,
या तू मेरे साथ है भी और नहीं भी ।
__________________
३
वो जिसको देख कर
मुझे ये लगता था,
कि मानो आइना ही सामने ले आया हो किसीने ,
कि जुड़वों की शक्ल हमेशा एक जैसी नहीं होती,
और एक ही घर के लोग एक ही छत के नीचे बड़े नहीं होते।
मुझे आज ऐसा लगा कि
सरे भीड़ में उसीने मेरे चेहरे के पार देखा ।
मेरी सांसे, मेरा वज़ूद,
मेरा जिस्म, मेरी रूह सब को नकार दिया ।
पता नहीं उसने मुझे देखा भी या नहीं,
पता नहीं मैं सच-मुच हूँ भी या नहीं ।
ये 'पुन्तु' के लिए लिखा है। अब उसने इतनी बेरुखी कर ली है कि उसके इस नज़्म को पढने का कोई डर नहीं। किसी को पता भी नहीं चलेगा किसके बारे में लिखा है। ब्लॉग पर लिखने से पहले एक बार उससे पूछना चाहता था, उसे पढ़के सुनना चाहता था। पर कह चुका हूँ - बेरुखी काफी कर ली है उसने, उसे पता भी न चलेगा, फर्क भी न पड़ेगा।
______________
2
जाडों की सुबह नर्म धुप
जब गुदगुदी करती थी पैरों में उसके,
तो यूँ ही आँखें बंद किए हुए
आधी-सी मुस्कान बना लेती चेहरे पे ।
तरह-तरह से, जगह बदल-बदल के
घंटो निहारता था उसे,
सूरज पूरब से पश्चिम तक दिन भर
नीली वादी को देखता है जैसे ।
अपने ही हाथों से मैंने आज खोदी है
अपने छाती की गीली ज़मीन को,
और एक औंधे कोने में दफनाया है
'नीनू' और उसकी आधी-सी मुस्कान को ।
____________
1.
नींद में चलने की आदत भी है,
और कल रात देर तक
रात का सीना टटोलता रहा वो शायर ।
पर उठकर जाने क्या टटोल रहा है
बिस्तर के इर्द-गिर्द
तकिये उठाये, रजाई घसीटा,
शाल उठाके फैंक दिया कुर्सी पर ।
कहीं वो उस खाब को तो नहीं ढूंढ रहा
जो आयी थी उसके पास
दबे पाँव, चुपके-से, सहमी-सी ।
इतना भी नहीं जानता ये शायर,
खाबों के जिस्म नहीं होते,
आँख खोलने पर वो मर जातीं हैं
और कोई नाम-ओ-निशान भी रहता नहीं
i carried 'Pukhraaj' a collection of poetry by Gulazar with me, so there are definite influences of the words and thoughts.
all the 17 shall be uploaded one by one, none of them have names so will just number them। apologies to the poems.
४
ये हवा गुज़री है पत्तों से चिपक कर
या तुने भूले हुए जुबान में कुछ कहा है आकर ।
ये रात है जनवरी के महीने की
या तुने ओढ़ दी है काली शाल पश्मीने की ।
ये तारे खेल रहे है लुक्का-छुप्पी चाँद से
या दिए जलाये हैं भटके राही के लिए तुने शब से ।
ये पेड़ खड़े हैं सीधे और शांत इंतज़ार में
या इस ज़मीन ने मशालें जलाई है इबादत में ।
ये झींगुर दिन के झगडे निपटाते हैं शाम को
या इन्हे भी आयतें सिखादी है अपने नाम को ।
ये तारों के के मोती जड़े हैं फलक पे
या तुने माहीन से छेद किए हैं मायूस से काले परदे पर
और चुपके के कहता है, आ इस चादर को हटा,
रौशनी का, मेरा दीदार तो कर ।
ये सोचता हूँ मैं इन वादियों में कभी-कभी
के या तो मैं तनहा हूँ,
या तू मेरे साथ है भी और नहीं भी ।
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३
वो जिसको देख कर
मुझे ये लगता था,
कि मानो आइना ही सामने ले आया हो किसीने ,
कि जुड़वों की शक्ल हमेशा एक जैसी नहीं होती,
और एक ही घर के लोग एक ही छत के नीचे बड़े नहीं होते।
मुझे आज ऐसा लगा कि
सरे भीड़ में उसीने मेरे चेहरे के पार देखा ।
मेरी सांसे, मेरा वज़ूद,
मेरा जिस्म, मेरी रूह सब को नकार दिया ।
पता नहीं उसने मुझे देखा भी या नहीं,
पता नहीं मैं सच-मुच हूँ भी या नहीं ।
ये 'पुन्तु' के लिए लिखा है। अब उसने इतनी बेरुखी कर ली है कि उसके इस नज़्म को पढने का कोई डर नहीं। किसी को पता भी नहीं चलेगा किसके बारे में लिखा है। ब्लॉग पर लिखने से पहले एक बार उससे पूछना चाहता था, उसे पढ़के सुनना चाहता था। पर कह चुका हूँ - बेरुखी काफी कर ली है उसने, उसे पता भी न चलेगा, फर्क भी न पड़ेगा।
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2
जाडों की सुबह नर्म धुप
जब गुदगुदी करती थी पैरों में उसके,
तो यूँ ही आँखें बंद किए हुए
आधी-सी मुस्कान बना लेती चेहरे पे ।
तरह-तरह से, जगह बदल-बदल के
घंटो निहारता था उसे,
सूरज पूरब से पश्चिम तक दिन भर
नीली वादी को देखता है जैसे ।
अपने ही हाथों से मैंने आज खोदी है
अपने छाती की गीली ज़मीन को,
और एक औंधे कोने में दफनाया है
'नीनू' और उसकी आधी-सी मुस्कान को ।
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1.
नींद में चलने की आदत भी है,
और कल रात देर तक
रात का सीना टटोलता रहा वो शायर ।
पर उठकर जाने क्या टटोल रहा है
बिस्तर के इर्द-गिर्द
तकिये उठाये, रजाई घसीटा,
शाल उठाके फैंक दिया कुर्सी पर ।
कहीं वो उस खाब को तो नहीं ढूंढ रहा
जो आयी थी उसके पास
दबे पाँव, चुपके-से, सहमी-सी ।
इतना भी नहीं जानता ये शायर,
खाबों के जिस्म नहीं होते,
आँख खोलने पर वो मर जातीं हैं
और कोई नाम-ओ-निशान भी रहता नहीं
Wednesday, 14 October 2009
Triveni
इस फॉर्म का इज़ात गुलज़ार साहब ने किया था । इस में दो ही पंक्तियों में शेर मुकम्मिल होता है , वो अपने आप हीसम्पूर्ण होता है , पर तीसरी लाइन के आ जाने से या तो उनके मायने बदल जाते हैं या उनके अर्थ में इजाफा होता है।
जैसे गंगा , जमुना मिलती हैं तो वो सबको नज़र आता है पर उनके अन्दर सरस्वती जो बहती है वो उसे त्रिवेणीबना देती है और पावन कर देती है - गुलज़ार साहब का अपना डेफिनेशन है यह ।
एक और बात उन्ही कि किताब पुखराज में एक नज़्म (मुझे यह शब्द बहुत पसंद है) है जिसमे उन्होंने लिखा है किकैसे एक थका हारा शायर जब बोझ ढोते-ढोते परेशान हो जाता है तो एक नन्ही सी नज़्म उसके पास आकर उससेकहती है - मेरे शायर, ला अपना यह बोझ मुझे देदे , मैं तेरा बोझ हल्का कर दूँ ।
अब त्रिवेणी शुरू होती है, आगे बनती गयी तो इसी जगह पे मिलेंगी आपको ।
not all of them may fully fit the description - did not want to loose the ideas, emotions, so just penning them down.
---
रात भर चाँद के आइने में अपना चेहरा निहारती रही,
शिकायत उनको नजदीकियों से, दूरियों से भी |
और ये कहते भी हैं वो के तुम बहुत confused हो!
- - -
औज़ार तैयार करता हो जैसे कोई, लड़ने से पहले,
धुल हटाई, नेहलाये-धोये, चमकाए, रंग लगाये;
आज मिलना था, कल देर रात वो 'nails paint' करते रहे
---
जब मिलती हो तो किसी बच्चे सी तेज़ी से दौड़ के भाग जाता है ,
तन्हाई में रेंगते-रेंगते धीरे से किसी बुज़ुर्ग की तरह गुज़रता है ;
यह वक्त है या इंसान, जो चाल अपनी बदलता ही रहता है ।
~~~
जो पुछा सबब रोने का उनहोंने हमसे, तो कहा कि,
कुछ खाबों की धूल खटकी और कुछ काई यादों की ;
कभी कभी नज़र भी आ जाता है आंखों में पानी भी ।
जैसे गंगा , जमुना मिलती हैं तो वो सबको नज़र आता है पर उनके अन्दर सरस्वती जो बहती है वो उसे त्रिवेणीबना देती है और पावन कर देती है - गुलज़ार साहब का अपना डेफिनेशन है यह ।
एक और बात उन्ही कि किताब पुखराज में एक नज़्म (मुझे यह शब्द बहुत पसंद है) है जिसमे उन्होंने लिखा है किकैसे एक थका हारा शायर जब बोझ ढोते-ढोते परेशान हो जाता है तो एक नन्ही सी नज़्म उसके पास आकर उससेकहती है - मेरे शायर, ला अपना यह बोझ मुझे देदे , मैं तेरा बोझ हल्का कर दूँ ।
अब त्रिवेणी शुरू होती है, आगे बनती गयी तो इसी जगह पे मिलेंगी आपको ।
not all of them may fully fit the description - did not want to loose the ideas, emotions, so just penning them down.
---
रात भर चाँद के आइने में अपना चेहरा निहारती रही,
एक एक कर सारे तारों की बिंदी try भी कर ली ;
देखना, तुम्हारी पीठ से चिपक कर मेरी नींद तो चली नहीं गयी |
--
गुफ्तगू पर पाबन्दी उनकी, ख़ामोशी पर भी,शिकायत उनको नजदीकियों से, दूरियों से भी |
और ये कहते भी हैं वो के तुम बहुत confused हो!
- - -
औज़ार तैयार करता हो जैसे कोई, लड़ने से पहले,
धुल हटाई, नेहलाये-धोये, चमकाए, रंग लगाये;
आज मिलना था, कल देर रात वो 'nails paint' करते रहे
---
जिस मोड़ को छोड़ ए थे हम मीलों से, वो आज फिर मिला है;
जो बिछादगए थे सालों से, उनसे अब मिलने का सिलसिला है;
वा'इसून में आज भी बहस छिड़ी है के दुनिया गोल है ।
२७/०८/२०११
---जब मिलती हो तो किसी बच्चे सी तेज़ी से दौड़ के भाग जाता है ,
तन्हाई में रेंगते-रेंगते धीरे से किसी बुज़ुर्ग की तरह गुज़रता है ;
यह वक्त है या इंसान, जो चाल अपनी बदलता ही रहता है ।
~~~
जो पुछा सबब रोने का उनहोंने हमसे, तो कहा कि,
कुछ खाबों की धूल खटकी और कुछ काई यादों की ;
कभी कभी नज़र भी आ जाता है आंखों में पानी भी ।
Monday, 5 October 2009
balance
why is order is such a preferred order,
so important is equilibrium, harmony essential
and balance almost inevitable?
a trough has to follow every crest,
the worst has to play
merry-go-round with the best?
children have to turn to old men,
life to death and death to life
one traverses again and again.
bubbles and ripples emerge together,
as do corresponding
zeniths and their nadirs
smiles the tears cancel out,
every debit has a credit
so they tell without a doubt.
instances of forced gulping down,
sure are matched by ones
of vomiting on one's own.
two sides of the same coin you say
two opposite poles
but why, if ask I may.
what purpose might it solve,
if round and round around itself
does the round revolve?
if the good is just
as good or as evil
as the evil be must.
every thing has a thing opposite
or every opposite
has an opposite thing.
so important is equilibrium, harmony essential
and balance almost inevitable?
a trough has to follow every crest,
the worst has to play
merry-go-round with the best?
children have to turn to old men,
life to death and death to life
one traverses again and again.
bubbles and ripples emerge together,
as do corresponding
zeniths and their nadirs
smiles the tears cancel out,
every debit has a credit
so they tell without a doubt.
instances of forced gulping down,
sure are matched by ones
of vomiting on one's own.
two sides of the same coin you say
two opposite poles
but why, if ask I may.
what purpose might it solve,
if round and round around itself
does the round revolve?
if the good is just
as good or as evil
as the evil be must.
every thing has a thing opposite
or every opposite
has an opposite thing.
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