Sunday 27 September 2009

इन शब्दों का मैं क्या करुँ

इन शब्दों का मैं क्या करूँ,
जो छोड़ के गए थे तुम मेरे पास ?

क्या वापिस कर दूँ ? कितना ?
ब्याज जोडूं या घटाऊँ, कैसे हिसाब लगाऊं?
जितनी तेज़ी से भूल गई थी तुम,
उतनी ही देर से उन्हें समेटा है है मैंने
आज भी अगर कोई नया ठोकर मारता है
तो उसे उठा, पोंछ कर जेब में रख लेता हूँ
क्या भाव दोगी तुम इन सब का ,
किस
तराजू से नापोगी इनका वज़न ?
गिनती तो आसान है पर,
हर शब्द के पीछे जो
जज़्बात पिरोता है इंसान
उसे कैसे तोले कोई ?

कुछ सच्चे पर लाचार से वादे हैं,
कुछ वो जो तसल्ली के झूठे किए हैं,
कुछ उलाहने, कुछ बहाने,
कुछ शिकायतें, कुछ नेमतें
खंज़र भी हैं, मरहम भी हैं,
एक से दिखने और एक से सुनने वाले
पर अलग-अलग, कैसे-कैसे बहुत सारे हैं

वैसे मेरे पास थे, अच्छे थे,
सच बड़े काम आते थे
कभी नग्मे बनाके गुनगुना लेता था,
कभी स्याही के रास्ते कागज़ पर उतारता था,
फिर घंटों उनके उभरे हुए चहरे सवांरता था
कभी आयतें बनाकर दुआ किया करता था,
कभी बेबस उन्ही की गली बक देता था
कभी तकिया कर उनपर लेट जाता था,
कभी हिजाब बना ख़ुद को ढक लेता था
एक आदत सी हो गई है इन बेगानों के साथ रहेने की,
आज ना सही कभी यह अपनों से भी अपने थे

इन्हे भिजवाऊँ भी तो कैसे?
बड़े से एक संदूक में रख दूँ हिफाज़त से,
खामोशी की चाबी लगा दूँ ?
यादों के दीवार से कुरेद-कुरेद के जुदा करना होगा
तकलीफ तो होगी, उन्हें भी, मुझे भी
एक और दिक्कत भी है,
कबूतर ही ले सकते है,
डाकिया पहुँचा सकता है
मुझे ही ले जाना पड़ेगा
किसी तीसरे के जानने का डर जो है
पर जब से छोड़ के गई हो
चेहरे पर एक-दो और दाग हो गए हैं
पता नहीं तनहा के हैं या जुदाई के
मेरा दीदार करोगी तो चेहरे से
मेरे
शायाद और नफरत हो जाए
तुम ही बता दो फिर
इन शब्दों का मैं क्या करूँ।




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