दिन को रात होते कई बार देखा था,
आज रात को दिन होते देखा है ।
तेरी मुस्कराहट से किस्मत कि लकीरों को
अपना जाना - पहचाना रास्ता बदलते देखा है ।
नन्ही सी धुप के कोमल ठोकर से
जाने कब से जमे बर्फ को
धीरे-धीरे पिघलते देखा है , रात को दिन होते देखा है।
ग़म के अंधेर गलियों में
ढोते थे जो तन्हाई के बड़े-भारी बोझ ,
मोहब्बतों के दरार से उन्हें सरक-सरक के
हल्का होते देखा है , रात को दिन होते देखा है ।
संग और खामोश उन बुतों को
पूजा के श्रद्धा और विस्वास से पसीजते देखा है ।
त्रस्त और परेशान पत्थरों को,
पुरानी कैदखाने के आरामदेह दीवारों का
अपना ठिकाना छोड़ते देखा है, रात को दिन होते देखा है ।
सूखे बावरे से खेतों को
पहले सावन के बूंदों में रीसते देखा है ।
फटे पीले वीरान से पन्नों पर
कविता को फिर से उभरते देखा है,
कभी दिन को रात होते देखा था
आज रात को दिन होते देखा है ।
टाइटल ठीक है?
bejjan padi iss bagia mein
ReplyDeletekabhi fuul khila kartin thi
kalion ke komal badan par
oons ki bundein soaa karti thi
par in baton ka ab kya mol
raat kya ,din kya
aab to har waqt,har jagah
lahu ke chintein gira karti hein
kabhi ensaan ke daman pe to kabhi khuda ke daman pe.......
muje naa intezar na raat ka n din ka
maange dua ye bande, raasta ho koi , dikhlade tere darbar ka.......
Bahut acche...... but a bit confused?
subhaanallha...ek post ke jawaab mein itna khoobsoorat kalaam. ek waazib sa sawal hai - humen aur aise kalaam kab padhne ko milenge
ReplyDeleteye lijiye janaab-
ReplyDeletejab jab aap likhenge, tab tab ham bhi likhenge
kagaz ke panne na sahi , kalam ki syahi na sahi
kisi ke bhavnoa ke samaan me, ham bhi do, char pankti yunhi likh diya karenge.........