Monday, 21 September 2009

raat ko din hote dekha hai

दिन को रात होते कई बार देखा था,
आज रात को दिन होते देखा है ।
तेरी मुस्कराहट से किस्मत कि लकीरों को
अपना जाना - पहचाना रास्ता बदलते देखा है ।

नन्ही सी धुप के कोमल ठोकर से
जाने कब से जमे बर्फ को
धीरे-धीरे पिघलते देखा है , रात को दिन होते देखा है।

ग़म के अंधेर गलियों में
ढोते थे जो तन्हाई के बड़े-भारी बोझ ,
मोहब्बतों के दरार से उन्हें सरक-सरक के
हल्का होते देखा है , रात को दिन होते देखा है ।

संग और खामोश उन बुतों को
पूजा के श्रद्धा और विस्वास से पसीजते देखा है ।

त्रस्त और परेशान पत्थरों को,
पुरानी कैदखाने के आरामदेह दीवारों का
अपना ठिकाना छोड़ते देखा है, रात को दिन होते देखा है ।


सूखे बावरे से खेतों को
पहले सावन के बूंदों में रीसते देखा है ।
फटे पीले वीरान से पन्नों पर
कविता को फिर से उभरते देखा है,
कभी दिन को रात होते देखा था
आज रात को दिन होते देखा है ।

टाइटल ठीक है?

3 comments:

  1. bejjan padi iss bagia mein
    kabhi fuul khila kartin thi
    kalion ke komal badan par
    oons ki bundein soaa karti thi

    par in baton ka ab kya mol

    raat kya ,din kya
    aab to har waqt,har jagah
    lahu ke chintein gira karti hein
    kabhi ensaan ke daman pe to kabhi khuda ke daman pe.......


    muje naa intezar na raat ka n din ka
    maange dua ye bande, raasta ho koi , dikhlade tere darbar ka.......


    Bahut acche...... but a bit confused?

    ReplyDelete
  2. subhaanallha...ek post ke jawaab mein itna khoobsoorat kalaam. ek waazib sa sawal hai - humen aur aise kalaam kab padhne ko milenge

    ReplyDelete
  3. ye lijiye janaab-
    jab jab aap likhenge, tab tab ham bhi likhenge
    kagaz ke panne na sahi , kalam ki syahi na sahi
    kisi ke bhavnoa ke samaan me, ham bhi do, char pankti yunhi likh diya karenge.........

    ReplyDelete