Monday, 26 October 2020

chacha aur 'new normal'

कोई ख़ास सामान नहीं होता था चाचा का, साइकिल पे एक रंग-बिरंगी धागों का डब्बा, दोपहर का खाना और पानी की एक खाली बोतल लेकर सुबह-सुबह चले आते थे।  दूकान या छत के नाम पर पीले रंग का एक तिकोना पॉलिथीन बिजली के खम्बे से बांधे हुए थे जिसके नीचे बैठकर चाचा अपनी सिलाई का काम करते थे। सिलाई का काम उनका इकलौता काम नहीं था।  पार्क के पास बैठने के कारण उनके कई और काम भी थे, मसलन - ड्राइवरों और डिलीवरी बॉयज को घरों के पते बताना, मेहमानों को गाड़ी पार्किंग करने की जगह बताना, म्युनिसिपेलिटी की गाड़ी को कचरे की दिशा में भेजना, छोटे बच्चों को डराते हुए गली के कुत्तों को डांटना, उन्हीं कुत्तों को फिर घरों से दिया हुआ खाना शाम को बांटना इत्यादि। इन कामों के लिए उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता था। 

चाचा छोटी-मोटी सिलाई-कढ़ाई का काम ही करते थे, जैसे पतलून लम्बी या छोटी करना, कमीज़ें ढीली या तंग करना, साढ़ी में फॉल लगाना, कपड़ों में  में रफू करना इत्यादि।  चाचा को किसीने पूरी-पूरी सूट सीलते हुए नहीं देखा, वो तमाम काम मैन मार्किट के टेलर लोगों का था जिनके पास बढ़िया दुकानें थीं और जहाँ पहुँचते ही चाय या ठंडा पुछा जाता था। चाचा के यहाँ ऐसी फ़िज़ूल चीज़ों का कोई प्रावधान नहीं था। मैन मार्किट के टेलर्स फाइन डाइन तो चाचा नुक्कड़ वाली चाइनीज़ फ़ास्ट फ़ूड। अब ऐसे छोटे-मोटे कामों के एवज़ में मिले पैसों से चाचा का घर परिवार कैसे चलता था ये अनुमान लगाना मुश्किल था। 

चाचा ने इस कॉलोनी को क्यों अपना कर्मक्षेत्र मान लिया था इसकी खबर भी किसी को नहीं थी।  चाचा कबसे उस कॉलोनी में बैठते हैं ये कोई ठीक से नहीं जानता था। किसी ने पुछा ही नहीं, सब को लगता था जैसे चाचा हमेशा से उस कॉलोनी के छोटे से पार्क का ही एक अभिन्न हिस्सा हैं। चाचा के पास हमेशा कॉलोनी का कोई न कोई होता या चाचा कहीं न कहीं होते। या तो वो लोगों का दिया हुआ सिलाई का काम करते थे या किसी रेड़ीवाले, कबाड़ी वाले या कामवाली बायीओं से सलाह मश्वरा करते हुए पाए जाते।  चाचा वैसे तो काम से काम रखने वाले थे और पूछने पर ही कुछ जानकारी देते थे पर कॉलोनी में सभी चाचा को मानते थे और कुछ नहीं तो गाडी के शीशे नीचे करके दुआ-सलाम कर निकल जाते। चाचा को चाय-पानी की कोई दिक्कत नहीं होती। पड़ोस के दो-चार घरों ने मानों चाचा को अपने चाय के साथ शामिल कर लिया था।  चाय के वक़्त कोई काम नहीं होता।  चाय के वक़्त सिर्फ चाय। 

चाचा के पीछे की पार्क की दीवार एक टेम्पररी स्टोर का काम करते थे।  अगर चाचा न बैठे हों तो किसी अपरिचित के लिए ये अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता की यहाँ होता क्या है।  उस दीवार पर कभी एक दो कपडे टंगे होते, कभी कोई पार्सल, कभी सब्ज़ी की थैली, कभी दूध का एक पैकेट, एक झाड़ू, पानी की बोतल और रंग-बिरंगी धागों का डब्बा। असल में चाचा कई लोगों के लिए वो काम कर देते जो आम तौर पर पडोसी करते हैं, जैसे - उनका पार्सल या चिट्ठी रख लेना, उनके बच्चों पर पार्क में खेलते वक़्त नज़र रखना, किसी के घर कोई सामान पहुंचा देना इत्यादि। किसी त्यौहार के वक़्त चाचा ज़्यादा व्यस्त पाए जाते और ख़ास कर शादी-ब्याह के मामलों में चाचा के पास बाकी कामों के अलावा सिलाई का काम भी ज़्यादा होता। कॉलोनी के घरों और उनमे काम करने या काम ढूंढने वालों के बीच चाचा एक एहम कड़ी थे।  किसी को झाड़ू-पोंछा लगाने को कोई चाहिए तो किसीको खाना बनाने के लिए तो किसीको मालिश के लिए। कॉलोनी में नए आये हुए परिवारों के लिए तो इन मामलों में चाचा वरदान वरदान साबित होते।  फिर काम ढूंढने वालों के लिए भी चाचा एम्प्लॉयमेंट - एक्सचेंज का काम करते और सप्लाई तो डिमांड के साथ जोड़ते। लोकल पुलिस को भी कई बार चाचा के पास खड़े हो कर चाय की चुस्की लेते हुए लोगों ने देखा है।  

कोरोना महामारी के बाद लगाए गए लोखड़ौन के दिनों चाचा नज़र नहीं आये। लोखड़ौन के हटने के एक-दो हफ्ते के बाद भी चाचा नज़र नहीं आये।  नज़र आता तो सिर्फ चाचा का पीला पॉलिथीन जिसपर धीरे धीरे सूखे पत्तों का ढेर जमा हो गया था। चाचा को मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते किसी ने नहीं देखा था तो उनका हाल-चाल पता करना मुश्किल था और ये वक़्त भी ऐसा था के जब इंसान अपने और सिर्फ अपनों के बारे में ही सोच सकता था। संक्रमण के भय से अपनों को सहायता करना भी दूभर था। लोग घरों में रहने और कुछ न करने को वीरता, शौर्य और राष्ट्र-सेवा का कार्य बताते थे। हाँ कुछ लोगों को, जैसे डॉक्टर, नर्सेज, पुलिस वाले, सब्ज़ीवाले, डिलीवरी करने वाले, कचरे वाले,  एक नया ख़िताब मिल गया था - फ्रंट-लाइन वर्कर्स और समाज उन्हें कुछ ज़्यादा सम्मान के नज़रों से देखने लगा था और उन लोगों के लिए थाली-बर्तन पीटना, दिए जलाना और सोशल मीडिया पे मीम बनाने में व्यस्त हो गया था। पर अगर यही लोग कभी कोरोना से संक्रमित हो जाएं तो उनका सुपरहीरो स्टेटस छीन जाता और उन्हें कभी-कभी सामाजिक बहिस्कार का भी सामना करना पड़ता। 

तीन-चार हफ़्तों के बाद चाचा अपनी पॉलिथीन के छत को साफ़ करते दिखाई पड़े और बहुत संभल के अपनी मशीन फिट की और अपना रूटीन चालू करने के इंतज़ार में बैठ गए । पर अब काफी कुछ बदल चूका था। न चाचा के पास कोई सिलाई का काम होता था न ही बात करने को लोग। चाचा के बाकी काम भी लोगों के घरों में बंद रहने के कारण ख़त्म हो गए थे या बहुत कम हो गए थे।  सड़क पर गाड़ियां कम थी, लोग एक-दूसरे के घर भी कम आ-जा रहे थे।  त्यौहार भी बस नाम को त्यौहार रह गए थे।  चाचा घंटों खाली बैठे रहते या थोड़ा पार्क में चल लेते।  चाचा कभी कभी पार्क की बेंच पर बैठ कर चिड़ियों की आवाज़ सुनते और देओदार के पेड़ों में उन चिड़ियों की आवाज़ों और उनकी शक्लों को मिलाने का काम करते। अब पार्क में बच्चे भी खेलने नहीं आते, न ही दोपहर को सास और बहुओं की किट्टी होती और न ही बाइयों की यूनियन की मीटिंग। काम के तलाश में घुमते हुए कोई मज़दूर या दूसरे लोग कभी कभी उनके पास खड़े बात करते दिख पड़ते पर ऐसा अक्सर प्रतीत होता की बात आगे बढ़ी नहीं और वो लोग अपने रस्ते चले जाते और चाचा रह जाते अकेले। चाचा की चाय भी अब घरों से नहीं आती थी। चाचा अब पानी का भरा हुआ बोतल अपने साथ भर के लाते और खाली बोतल ले जाते।  चाचा को नहीं मालूम था की ये "न्यू नार्मल " है।  

एक दो हफ़्तों के बाद चाचा फिर दिखाई नहीं पड़े। हम अपनी बालकनी से रोज़ झांकते और सोचते की कहीं चाचा खुद तो कोरोना के चपेट में नहीं आ गए। पता करने का कोई तरीका भी नहीं था और न ही ये काम किसी के "अति आवश्यक " केटेगरी में आता था जैसा की कॉलर टुन की महिला बताती थी। चाचा की पॉलिथीन पर अब पत्तों का एक बहुत बड़ा ढेर जमा हो गया था और चाचा के पीछे वाली पार्क की दीवार बिलकुल खाली हो गयी थी। अब ऐसा लगता था की यहाँ पर कभी कुछ था ही नहीं। चाचा की स्टोरी सोशल मीडिया के लायक नहीं थी या कॉलोनी के लोगों ने कोशिश नहीं की पर चाचा अब कई महीनों से नहीं आये थे। ऐसा भी नहीं था की चाचा के नहीं आने से लोगों का कोई काम रुकता था । चाचा थे तो ठीक था, अब नहीं हैं तो ये भी ठीक है। 

लोग अपने-अपने तरीके से कोरोना की वजह से बने नए आर्थिक और सामाजिक समीकरण को समझ रहे थे और उसके अनुसार काम  कर रहे थे। सरकार चुनावी वायदे करने में लग गयी थी - हज़ारों करोड़ों रुपयों के रिलीफ पैकेज की घोषणायें हो रही थीं; बड़े पूंजीपति इसे बड़ा अवसर बता रहे थे और बड़े  निवेश, कंपनियों की खरीद-फरोक में लगे थे; अमीर और अमीर हो रहे थे, ग़रीब और ग़रीब। मीडिया ने पुलिस का काम करने का निर्णय कर लिया था और सोशल मीडिया और वेबिनारस के माध्यम से लोग बिना पूछे ही अपनी राय और ज्ञान देने में व्यस्त थे। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से हर रोज़ अमूमन 1000-1200 लोग मर रहे थे और 60,000-70,000 लोग संक्रमित हो रहे थे; इसे रोकने का कोई ठोस उपाय या प्लान न सरकार के पास था न श्वास्थ एजेंसियों  के पास। बेरोज़गारी और मज़दूरों का कोई डाटा ही सरकार के पास नहीं था तो उनकी ज़िम्मेदारी से सरकार ने अपने को बरी कर दिया था। 
सब इस "न्यू नॉर्मल " के साथ एडजस्ट कर रहे थे।  शायद चाचा एडजस्ट नहीं कर पाए।  

based on real incidents and most likely (un)real facts !

3 comments:

  1. बहुत खूब एक बार से दिल नहीं भरा तो दुबारा पढ़ा

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  2. यह लेख गागर में सागर भरने जैसा है, जहां समाज के कई अतिश्योक्तियों पर वार किया गया वहीं हमारे आस पास रहने वाले चाचा जैसे व्यक्तित्व के लिए मानस पटल को झकझोरने का सार्थक प्रयास !!

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