Tuesday, 1 June 2010

उमस

औंधे कमरे में अब मेरा पता नहीं मिलता ।
न कोई आहट किसी हरकत की,
न जिस्म की बू कहीं ।
चेहरा और कमरे में बंद अँधेरा
एक दुसरे में समां चुके थे ,
उन्हें अलग करना मुश्किल था ।

आँखें धुप में जल गयीं थी ,
शहर के एहतमादी लू ने
साँसों का गला घोंट दिया था ।
रगों में बहता हुआ लहू
खुश्क आँखों को जज्बातों में डुबो कर
भिगो कर सूख चूका था ।

बहार से आवाज़ देना बेकार था,
नशा कोई भी नहीं - होश कहाँ था?
पर मुझे ख़बर थी
मैं उस कमरे में नहीं था ।

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