Friday, 26 February 2010

मैं

यह कैसी नींद से जगा मैं आज !
पलकें बंद करूँ या रखूं खुली
एक-सा ही लगता है सब कुछ
वक़्त भी एक-सा, भोर या गोधुली

कहते हैं चक्र का आदि है अंत
जिस बिंदु से चल पड़े वो सही
शुन्य से शुन्य का सफ़र है
जहाँ से चले थे वही मंजिल और वही पंथ

मैं ही मैं हूँ यहाँ, अब कोई और नहीं
माया, संसार, इस पार, उस पार
भला-बुरा, सुभ-अशुभ, पुण्य-पाप
सब अंतर, बाहर कुछ नहीं।


इनका अपना तो कोई अस्तित्व नहीं
मेरी रज़ा के मोहताज़ हैं ये
मेरे नकारने, नज़र अंदाज़ करने पे
इनकी कोई ताकत भारी नहीं

पर मुझपे ही मेरा सारा बोझ क्यों?
क्या ये इम्तेहान ज़रा मुश्किल नहीं ?
माना तू मेरे साथ था, है और रहेगा
फिर भी दिल में ये डर क्यों ?

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