Monday, 13 July 2009

चलो आए तो

अब के बरस बड़ी देर से आए, पर चलो आए तो।

शिकवों -गिलों की भीड़ जो जमा की थी साल भर

पल भर में देखो कैसे बिखर से गए । अब के बरस...

हसरतों के आँचल बेरंग खुले थे जो अब तक

तुम्हारी स्याही के इंतज़ार में सिमट से गए। अब के बरस ...

खूब सताया तुम्हारी सौत ने, जली- भुनी खिलाती रही

तुम्हारी हाथ की रोटी को हम तरस से गए । अब के बरस ...

एक आदत डाल ली थी धुँए कि घुटन में जीने की

तुम्हारी खुसबू को हम जाने कैसे भूल से गए। अब के बरस ...

कुछ बासी नाराजगी होगी, फ़ेंक देना इतना मुश्किल तो नहीं

देखो तुम्हारी याद में, मैं और वो पत्ते कैसे झुलस से गए।

अब के बरस बड़ी देर से आए, पर चलो आए तो।

दिल्ली की एक उदासीन दोपहर के उपरांत एक हलकी सी बारिश के बाद ।

1 comment:

  1. Nice. I liked it. You seem to be fond of Kabir. Nice writings. Keep it up.
    amrita

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